سوال نمبر: 00132 / واراہی - رادھنپور / گجرات
سوال:
ایک شخص داڑھی منڈاتا ہے لیکن اس کی قراءت صحیح ہے۔ دوسرا شخص داڑھی سنت کے مطابق رکھتا ہے مگر قراءت درست نہیں۔ ان دونوں میں سے امامت کا زیادہ حقدار کون ہے؟ اور کیا داڑھی منڈانے والے کے پیچھے نماز جائز ہے؟ نیز اگر داڑھی اور قراءت دونوں والے شخص نے ایسے فاسق امام کے پیچھے نماز پڑھ لی تو کیا حکم ہے؟
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الجواب وباللہ التوفیق:
امام کے لیے دو بنیادی شرطیں ہیں:
1. سنتِ نبوی کی پیروی، خاص طور پر داڑھی جو کم از کم ایک مشت ہو۔
2. قراءت صحیح ہو یعنی قرآن کی تلاوت بغیر غلطی کے ہو۔
پہلا معاملہ: داڑھی منڈانے والا، لیکن صحیح قراءت والا شخص
ایسا شخص شریعت کے مطابق فاسقِ معلن (کھلا گناہ گار) کہلاتا ہے، کیونکہ داڑھی منڈانا یا ایک مشت سے کم رکھنا حرام اور کبیرہ گناہ ہے۔
فتاویٰ رضویہ (جلد 6، ص 603) میں اعلیٰ حضرت امام احمد رضا خان بریلوی علیہ الرحمہ نے فرمایا:
> "داڑھی منڈانے والے کی امامت مکروہِ تحریمی ہے، اور اس کے پیچھے نماز پڑھنا گناہ اور واجب الاعادہ ہے۔"
دوسرا معاملہ: داڑھی والا مگر قراءت میں کمزور شخص
اگر اس کی قراءت میں ایسی غلطی ہے کہ قرآن کا مطلب ہی بدل جائے، تو اس کی امامت بھی ناجائز ہے۔
البتہ اگر صرف تجوید میں سستی ہو، اور نماز درست ہو جائے، تو وہ داڑھی منڈانے والے سے بہتر امام ہے۔
کیونکہ گناہگار امام کی امامت مکروہِ تحریمی ہے، جبکہ تجوید کی کمی امامت کی نفاست میں کمی ہے، نہ کہ امامت کی اہلیت کے بالکل خاتمے کا سبب۔
خلاصہ یہ ہے:
امامت کے لیے بہتر وہ ہے جو سنت پر عمل کرے اور قراءت بھی صحیح ہو۔
اگر دونوں اوصاف نہ ہوں، تو جس کی غلطی نماز کے فساد کا سبب نہ بنے، اسے ترجیح دی جائے۔
داڑھی منڈانے والے امام کے پیچھے نماز پڑھنا مکروہِ تحریمی ہے، دوبارہ پڑھنا واجب ہے۔
اگر کسی نے سنت والے امام کے ہوتے ہوئے فاسق امام کے پیچھے نماز پڑھی، تو وہ گناہگار ہوگا۔
مفتی جلال الدین احمد علیہ الرحمہ (فتاویٰ فیض الرسول جلد 1 ص 556) فرماتے ہیں:
> "داڑھی منڈانے والا فاسق معلن ہے، اس کی اقتداء ناجائز ہے، اور اگر کوئی دوسرا امام نہ ہو تو تنہا نماز پڑھے، جماعت چھوڑ دے لیکن فاسق کو امام نہ بنائے۔"
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نکات برائے یادداشت:
امام وہی بنے جس کی ظاہری و باطنی حالت شریعت کے مطابق ہو۔
داڑھی منڈوانا گناہِ کبیرہ ہے، فاسق کی اقتداء ناجائز ہے۔
اگر کوئی دوسرا امام نہ ہو، تو تنہا نماز ادا کرنا بہتر ہے۔
جمعہ جیسے مواقع پر بسا اوقات مجبوری میں فاسق کے پیچھے نماز پڑھی جا سکتی ہے، مگر دل میں کراہت اور توبہ ضروری ہے۔
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اللہ تعالیٰ ہم سب کو سنت کے مطابق زندگی گزارنے اور صحیح دین دار امام کی اتباع کی توفیق عطا فرمائے۔
واللہ تعالیٰ اعلم بالصواب
خادمِ :
ابو احمد ایم جے اکبری
*دارالافتاء گلزارِ طیبہ*
*दारुलइफ्ता गुलज़ार-ए-तैबा*
ख़ादिम: मुफ़्ती अबू अहमद एम. जे. अकबरी
फ़तवा नंबर: 00132 / वाराही - राधनपुर / गुजरात
सवाल:
एक शख़्स दाढ़ी मुंडाता है लेकिन उसकी क़िराअत सही है। दूसरा शख़्स दाढ़ी सुन्नत के मुताबिक़ रखता है मगर उसकी क़िराअत दुरुस्त नहीं। अब सवाल यह है कि इन दोनों में से नमाज़ पढ़ाने का ज़्यादा हक़दार कौन है? और अगर दाढ़ी मुंडाने वाला इमामत करे तो क्या उसके पीछे दाढ़ी वाला शख़्स नमाज़ पढ़ सकता है? और अगर कोई शख़्स जिसकी दाढ़ी भी है और क़िराअत भी सही है, वह अगर ऐसे फासिक़ इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ ले तो उसका क्या हुक्म है?
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अलजवाब बिल्लाह तौफ़ीक़:
इमाम के लिए दो बुनियादी शर्तें ज़रूरी हैं:
1. सुन्नत की पाबंदी, ख़ासकर दाढ़ी का एक मुठ तक रखना।
2. क़िराअत का सही होना, यानी कुरआन की तिलावत बिना ग़लती के करना।
पहला मामला: दाढ़ी मुंडाने वाला लेकिन क़िराअत सही
ऐसा शख़्स शरअन फ़ासिक-ए-मुअलिन कहलाता है। क्योंकि दाढ़ी मुंडाना या एक मुठ से कम रखना हराम और कबीरह गुनाह है।
(फताव़ा रज़विया, जिल्द 6, सफा 603) में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:
> “दाढ़ी मुंडाने वाले की इमामत मकरूह-ए-तहरीमी है और उसके पीछे नमाज़ पढ़ना गुनाह और वाजिबुल-इआदा है।”
दूसरा मामला: दाढ़ी वाला मगर क़िराअत में कमज़ोर
अगर उसकी क़िराअत में ऐसी ग़लती है जिससे क़ुरआन का मअना बदल जाए तो उसकी इमामत भी दुरुस्त नहीं।
अगर तजवीद की कमी है, मगर नमाज़ सही हो जाती है, तो ऐसा शख़्स दाढ़ी मुंडाने वाले से बेहतर इमाम है।
खुलासा ये है:
जो शख़्स सुन्नत पर अमल करता हो और क़िराअत सही हो, वही इमाम बने।
फासिक़ (जैसे दाढ़ी मुंडाने वाला) के पीछे नमाज़ मकरूह-ए-तहरीमी है, और उसे दोबारा पढ़ना वाजिब है।
जब नेक और सुन्नती इमाम मौजूद हो, तो फासिक़ को इमाम बनाना गुनाह है।
मुफ़्ती जलालुद्दीन रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं
(फ़ताव़ा फैज़ुर रसूल, जिल्द 1, सफा 556):
> “दाढ़ी मुंडाने वाले के पीछे नमाज़ जायज़ नहीं, क्योंकि वह हराम का इर्तिकाब करने वाला फासिक़ है। अगर कोई और इमाम न मिले तो तन्हा नमाज़ पढ़ें, मगर फासिक़ को इमाम न बनाएं।”
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याद रखने की बातें:
इमाम वही होना चाहिए जो शरीअत और सुन्नत का पाबंद हो।
दाढ़ी मुंडाना कबीरह गुनाह है, और ऐसे शख़्स की इमामत नाजायज़ है।
अगर मजबूरी में पढ़ी गई हो, तब भी तौबा लाज़िम है।
जुमा में मजबूरी से पढ़ना हो सकता है, क्योंकि वह फ़र्ज़ है,
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अल्लाह तआला हम सबको सुन्नत के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने और सही, मुत्तक़ी इमाम की पैरवी करने की तौफ़ीक़ दे।
वअल्लाहु तआला आलम बिस्सवाब
*ख़ादिम* :
*मुफ़्ती अबू अहमद एम. जे. अकबरी*
*दारुलइफ्ता गुलज़ार-ए-तैबा*
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